बतूता का जूता / Batuta Ka Juta

बतूता का जूता

बतूता का जूता
— एक कविता

बतूता का जूता बड़ा अनोखा,
कभी चमकता, कभी भटके धोखा।
पैरों में उसके जब ये आए,
दुनिया भर के सपने सजाए।

जूता बोले, “चलो दूर देश,
जहां है सूरज का स्वर्ण उपदेश।
पर्वत, नदियाँ, बर्फ के झरने,
संग मेरे सब मंज़र चुमने।”

बतूता ने पूछा, “क्यों रे जूते,
कहाँ-कहाँ तक हमें घुमाए तू रे?”
जूता हँसकर बोला, “सुनो जनाब,
हर दिशा का खुलवा दूँ हिसाब।”

रेगिस्तान के रेत पर दौड़े,
जंगलों की गहराई भी जोड़े।
शहर की गलियाँ, गाँव के मेले,
हर जगह के रंग दिखा दे।

बतूता मुस्काए, जूते संग चले,
सपनों की राह में कदम बढ़े।
जितना चला, उतना पाया,
जूते ने हर कोना दिखाया।

अब बतूता कहे, “धन्य है जूता,
संग तेरे दुनिया लगे अनूठा।
जीवन का सबक मुझे सिखा दिया,
चलते रहो, यही राह दिखा दिया।”


यह कविता बतूता और उसके अनोखे जूते की यात्रा और जीवन के अनुभवों को सरल व मनोरंजक रूप में प्रस्तुत करती है।